• Home
  • CULTURE
  • Festivals
  • गणपति उत्सव परम्परा एवं अदभुत प्रतिमायें

गणपति उत्सव परम्परा एवं अदभुत प्रतिमायें

Ganesha worship in Bangkok Thailand. Murthi is off Sukumwit street 2009
  • इस आलेख में भारत के विभिन्न स्थानों के सुप्रसिद्ध गणेश मंदिरों एवं गणेशोत्सव की परंपरा और इतिहास का वर्णन है |

 

वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभ: |

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ||

 

संस्कृत के इस श्लोक से भला कौन हिन्दू परिचित नहीं होगा? यह श्लोक अनादिकाल से गणेशजी स्तुति में गाया जाता रहा है। यह विवाह एवं अन्य मंगल कार्यों के निमन्त्रण पत्र के शीर्ष पर अवश्य दिखता है। हिन्दू धर्म में किसी भी मांगलिक कार्य के आरम्भ में विध्न विनाशक गणेशजी का पूजन करने की परम्परा है। माना जाता है कि ऐसा करने से शुभ कार्य में कोई बाधा नहीं आती है और निष्कंटक रूप से वह कार्य सम्पन्न होता है। गणेश जी के वन्द्रन स्मरण को सौभाग्यकारक, समृद्धिदायक एवं सुख प्रदान करने वाला माना जाता है। हर कार्य के शुभारम्भ के लिये भी 'श्री गणेशशब्द का प्रयोग होता है। 

 

किसी भी घर में जब भी कोई मांगलिक कार्य के समय होने वाली पूजा में अगर गणेश जी की मूर्ति होने पर गोबर से गणपति को बना कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा कर उनका पूजन किया जाता हैइसके उपरान्त इस समग्री का जल में विसर्जन कर दिया जाता है। 

 

भगवान गणेश एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में पाश, अंकुश, मोदक तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी हैं। वे रक्त चन्दन धारण करते हैं तथा उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। एक रूप में भगवान श्रीगणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं। 

 

गणेश जी के नाम

शिव-पार्वती पुत्र को अनेक नामों से जाना जाता है। इनमें गणेश नाम ब्रह्माजी द्वारा दिया गया जिन्होंने उनको देवों का अधिपत्य प्रदान किया। उनके दूसरे अवतारी नामों में एकदन्त, वक्रतुण्ड, महोदर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज, धूम्रवर्ण हैं | वहीं सुमुख, कपिल, गजकर्णक, विनायक, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र, द्वैमातुर, गणाधिप, हेरम्ब उनके अन्य दूसरे नाम हैं। उनके अवतारों की अनेक दृष्टान्त धर्म ग्रन्थों में उल्ल्खित है। गणेश जी को देवों में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है और वो बुद्धि के देवता के रूप में माने जाते है। व्यास जी की महाभारत को गणेशजी लिखित मानी जाती है।

 

गणेश जी के उपासना स्थल

हिन्दू धर्म के सभी मताबलम्बियों में गणेश जी की महिमा एक सामान है हर शिव मंदिर में गणेश मन्दिर का होना अन्यथा प्रतिमायें का होना आवश्यक हैं उत्तर भारत में बने पुराने मन्दिरों में छोटी गणेश प्रतिमायें है, परन्तु दक्षिण मध्य भारत में हर बड़े शिवमन्दिर विष्णु मन्दिर में गणेश जी बड़ी प्रतिमायें देखने को मिलती हैं। कुछ स्थानों पर उनके एकल मन्दिर भी है। उत्तर मध्यकाल मध्यकालीन मन्दिरों में उनकी विशाल प्रतिमायें मिलती हैं जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में भी गणेश जी कितने पूजनीय थे। महाबलीपुरम में सातवीं शती में पल्लव राजाओं के समय की संरचनाओं में जो पांच रथं बने हैं उनके एक गणेश रथ भी है। 

Ganeshji at Barsur in Bastar 

बस्तर की प्राचीन गणेश प्रतिमायं

भारत में सबसे प्राचीन एवं विशालतम गणपति प्रतिमायें छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर सम्भाग के दन्तेवाड़ा जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्र बारसूर में हैं। बारसूर जिला मुख्यालय दन्तेवाड़ा से 32 किमी दूर है। बारसूर में गणेशजी की 8 फीट ऊंची एवं 5 फीट ऊंची दो प्रतिमायें हैं। 

 

इतिहास यह है की, यहां सातवीं शती में नागवंशियों के काल में डेढ़ सौ के आसपास मन्दिर तालाब आदि थे। उनके बाद कल्चुरी राजाओं के समय भी यह एक सम्पन्न नगरी रही। 14वीं शती में चालुक्यों की एक शाखा ने कल्चुरी पर आक्रमण कर उस पर अधिपत्य कर लिया। इस हमले से यहां के शासक प्रजा पूरब में बस्तर की ओर कूच कर गये। चालुक्य नरेश ने दन्तेवाड़ा को अपनी राजधानी के लिये इसलिये चुना क्योंकि यह स्थान उनके राज्य के मध्य में था। बारसूर से राजधानी हटते ही यह नगरी नेपथ्य में चली गई। इससे यहां पर स्थापित मन्दिर तालाब दूसरे भवन खण्डहर में बदलते चले गये। बाकी कसर प्रकृति की मार एवं भौगोलिक हलचलों ने पूरी कर दी। उसी बारसूर की तीन किमी. की परिधि में आज भी पुराने मन्दिरों भवनों के भग्नावशेष देख् जा सकते है। इनमें करीब पांच मन्दिर ठीक हालत में है। 

 

यहां की दोनों गणेश प्रतिमायें बलुआ पत्थर से बनी है। अनुमान यह है की ये मूर्तियां एक विशाल शिव मन्दिर के अहाते में थी जो कालांतर में ध्वस्त हो गया इस ध्वस्त मन्दिर के भग्नावशेषों में ही यह विशाल प्रतिमायें मिली थी। इन दोनो प्रतिमाओं को भारतीय पुरात्त्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित रखने के लिये उनको एक ग्रिल युक्त कक्ष में रखा है। बारसूर क्षेत्र से एक यही प्रतिमा नही मिली है बल्कि यहां से ग्रेनाइट पत्थरों से बनी गणपति एवं अन्य देवी-देवताओं की अनेकों प्रतिमायें मिली है। इनमें से कुछ को तो दन्तेवाड़ा स्थित दन्तेश्वरी मन्दिर परिसर में रखा गया है। वर्तमान बारसूर एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है जिनकी परम्पराओं से लेकर, उपास्य पद्धति संस्कृति हिन्दू रीति रिवाजों से एकदम अलग है। कुछ साल पहले तक दन्तेवाड़ा जिले में 30 किमी दूर दुर्गम ढोलकल नामक स्थान में एक अन्य शानदार गणेश मूर्ति थी। यह ग्रेनाठट पत्थर से एक निर्जन पहाड़ी पर स्थापित थी जिसे नक्सलियों ने नीचे फेंक दिया।

Ganesha at Hampi, Karnataka

हम्पी की विशाल गणेश प्रतिमायें

बस्तर से इतर गणपति की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमायें कर्नाटक के हम्पी में भी है। विजयनगर राजाओं की राजधानी हम्पी, जो कि विश्वविरासत स्थल भी है, यहाँ प्रतिदिन हजारों पर्यटकों का आना होता है। 15वीं सदी के दौरान हम्पी, विजयनगर साम्राज्य की राजधानी विशाल क्षेत्रफल में फैली थी। मुस्लिम आक्रान्ताओं ने यहां के मन्दिरों प्रतिमाओं एवं यहां बनी दूसरी संरचनाओं को ध्वस्त कर दिया था  

 

यहीं पर हेमकूट की एक छोटी पहाड़ी पर प्रवेश करते समय दो गणेश मन्दिरों में दो बड़ी गणपति प्रतिमायें दिखती हैं इनमें एक मन्दिर कडलेकालु गणेशजी की है जिसमें उनकी 15 फीट ऊंची प्रतिमा है। कडलेकालु का कन्नड में शब्दिक अर्थ बड़ा होता है। मजबूत पत्थर की बनी होने से आक्रान्ता इसे अधिक क्षति नहीं पहुंचा सके। आंशिक रूप से खण्डित होने पर भी इस प्रतिमा की भव्यता स्वरूप यथावत है। गर्भगृह के बाहर प्रस्तर खम्बों का शानदार चैकोर मण्डप है। खम्बों पर अनेकानेक शानदार कलाकृतियां गढ़ी गई है। 

 

इसके निकट ही गणेशजी की दूसरी प्रतिमा सासिवकालु गणेश है। इसका कन्नड अर्थ है सरसों का दाना यानि छोटा। यह चारों ओर से खुले एक प्रस्तर मण्डप में स्थापित है। आठ फीट ऊँची यह मूर्ति भी कुछ खण्डित है, परन्तु फिर भी प्रभावित करती है। ऊँचे टीले पर बने इन गणपति मन्दिरों से हम्पी का दूर-दूर का दृश्य दृष्टिगोचर होता हैै। इनमें विरुपक्ष मन्दिर का भव्य गोपुरमप्रमुख है। 

 

सासिवकालु गणेश की प्रतिमा को आन्ध्र में चन्द्रगिरी के एक व्यापारी ने अपने राजा नरसिंह की स्मृति में स्थापित करवाया गया। इन मन्दिरों की प्रतिमाओं के खण्डित करने के कारण यह मन्दिर हमेशा के लिये पूजा के लिये त्याज्य हो गये फिर भी कई श्रद्धालु यहां पर विधि विधान से पूजा करते मिलते हैं।  

 Vinayaka at Lipakshi 

लिपाक्षी के विनायक

मूर्तियों के अतिरिक्त, गणपति की पत्थरों पर उकेरी प्रतिमाएं मिलती है। इनमें आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणवर्ती जिले अनन्तपुर में हिन्दूपुर कस्बे के निकट लीपाक्षी मन्दिर परिसर में है। लिपाक्षी में विजयनगर राजाओं के द्वारा 14वीं से 17वीं सदी के मध्य निर्मित अनेक मन्दिर है। यहां पर शिल्प की दृष्टि से शिव, वीरभद्र, विष्णु दुर्गा के अद्भुत मन्दिर है। लिपाक्षी की पहचान भारत में 27 फीट लम्बी नन्दी की शानदार प्रतिमा से भी है।

 

धर्मग्रन्थों के अनुसार लिपाक्षी में श्री राम को जटायु घायलावस्था में मिले थे। यहां के वीरभद, दूसरे मन्दिर कूर्म शिला पर बने हैं जो अपने आपमें अद्वितीय है। इसी परिसर में गणेश जी की शिला पर उकेरी आठ फीट ऊंची आकृति सबसे बड़ी है। यह लाल चट्टान पर बनी है। इनके अलावा दक्षिण भारत के अनेक मन्दिरों में गणेश जी के मन्दिर प्रतिमायें मिलती हैं | तंजावूर के बृहदेश्वर मन्दिर परिसर में गणेश मन्दिर बना है हांलकि यह बहुत बाद में बना। महाबलीपुरम में भी एक प्राचीन गणेश मूर्ति है।    

 

कोयम्बटूर की शिला मूर्ति

तमिलनाडु राज्य के कोयम्बटूर जिले के पुल्याकुलम में देश की सबसे बड़ी गणेश जी की प्रतिमा है। ग्रेनाइट पत्थर से बनी इस प्रतिमा की ऊंचाई 19 फीट चैड़ाई 12 फीट है जिसका वजन लगभग 190 टन है। इस मूर्ति का माथा ढाई फीट चैड़ा है। इसके लिये निकटवर्ती स्थान ओथुकुली में पत्थर तलाशा गया जिसके बाद उससे वर्तमान मूर्ति बनाई गई। इसे बनने में 6 साल का समय लगा। 1998 में इसकी स्थापना कर इसमें प्राण प्रतिष्ठा की गई। गणेश चतुर्थी के समय यहां पर बडा़ उत्सव होता है। इन गणपति को मुंडि विनायगर गणेश कहा जाता है। मूर्ति चतुर्हस्थ है जिसमें मूर्ति की सूंड दायीं ओर है।    

इन्दौर की गणेश प्रतिमा

मध्यप्रदेश के शहर इन्दौर का गणेश मन्दिर इनमें सबसे अलग है। जहां पर भारत के सबसे बड़े गणपति की मूर्ति स्थापित है। हांलकि यह शिलामूर्ति नहीं है। यह पूरे 25 फीट ऊंची है। उत्तर मध्य भारत में यह उनका प्रमुख एकल मन्दिर है। रंगों से सजी यह मूर्ति बहुत भव्य लगती है | इंदौर आने वाले लोग इस मंदिर को देखने अवश्य जाते है। 

Ganesha in Kolhapur 60 feet tall

अन्य विशाल प्रतिमायें

जब पत्थर प्रमुख निर्माण सामग्री होती थी तो छोटी या विशाल सभी मूर्तियां पत्थर से ही बनती थीं। परन्तु आधुनिक काल में विशाल प्रतिमाओं में पत्थर का स्थान कांन्क्रीट सीमेन्ट ने लेली है ऐसी अनेकों मूर्तियां यत्र तत्र दिख जाती है। इस क्रम में यदि सबसे विशाल गणेश प्रतिमा की बात करें तो वह महाराष्ट्र के कोल्हापुर नगर में है जो 60 फीट ऊंची है। यह मूर्ति 24 फीट ऊंचे प्लेटफार्म पर स्थापित है जिसमें गणेश जी के ऊपर शेषनाग का फन है। यह मन्दिर चिन्मय ट्रस्ट के द्वारा 2001 में स्थापित की गई इसलिये इसे चिन्मय गणेश भी कहते है। जमीन से 84 फीट ऊँची होने से यह दूर से दिखती है। महाराष्ट्र में एक और भव्य गणेश प्रतिमा पुणे-मुम्बई मार्ग पर लोनावाला के समीप तालेगांव में एक पहाड़ी पर है, जिसके बाहर से तांबें का आवरण चढा है। उद्योगपति बिरला ने इसकी स्थापना करवाई थी

 

इसके अतिरिक्त देश में कई मन्दिरों में गणपति की मूर्तियां है। कई स्थानों पर धातु की प्रतिमायें भी मिलती है जिनमें तांबे कांसे का प्रयोग हुआ है। कुछ गणपति मन्दिरो में दूसरी धातुओं से बनी मूर्तियां भी है। मुबई का सि़द्धिविनायक मन्दिर एवं पुणे के दगडू सेठ का गणपति मन्दिर कुछ अन्य उल्लेखनीय मन्दिर है।       

 

गणपति उत्सव परम्परा

भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष चतुर्थी को गणपति जी का जन्म हुआ था इसलिये इस दिन उनका पूजन स्मरण किया जाता है। उनके जन्म की कथा से सभी अच्छी तरह से परिचित है। चतुर्थी को उनके पूजन की परम्परा सदियों से चली रही है। यह परम्परा उत्तर के सापेक्ष पश्चिम एवं दक्षिण भारत में अधिक विद्यमान रही। इस क्षेत्र में रहे सातवाहन, राष्टकूटों एवं चालुक्य राजाओं के समय गणेश चतुर्थी को मनाने का उल्लेख मिलता है। शिवाजी की माता जीजाबाई ने एक बार इसे पुणे कस्बे में मनाया था। 

 

पूर्व में यह उत्सव पेशवाओं तक ही सीमित था, पर सन् 1893 में आजादी के आन्दोलन के प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक ने हिन्दू समाज में समरसता बढ़ाने हेतु गणेश उत्सव को घर के स्थान पर सार्वजनिक तौर पर मनाने की परम्परा डाली। लक्ष्य यह था ताकि इस नाम पर हिन्दू समाज का हर व्यक्ति इस उत्सव में भाग ले और स्वतन्त्रता आन्दोलन में सबकी भागीदारी हो सके। आज एक सदी से अधिक समय से यह उत्सव घर के अलावा सार्वजनिक रूप से मनाये जाने वाला उत्सव बन गया है। जो आज देश के कई भागों में मनाया जाने लगा है। गणेश चतुर्थी को आरम्भ होकर गणेशोत्सव दस दिनों तक चलता है। प्रथम दिन गणपति की प्रतिमायें घर से लेकर पण्डालों में विधि विधान के अनुसार स्थापित की जाती है और अन्तिम दिन इन प्रतिमाओं का समारोहपूर्वक सरोवरों, नदियों एवं सागर तटों पर विसर्जन कर दिया जाता है। इस पर्व के समय समाज में उल्लास का वातावरण रहता है। 

 

गणपति विसर्जन 

गणपति महोत्सव में सार्वजनिक स्थनो एवं घरों में उत्सव हेतु स्थापित मूर्तियां आम तोर पर मिटटी, घास अथवा प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से बानी होती हैं, जिन्हे उत्सव के उपरांत जल में विसर्जित कर दिया जाता हैं | पर मिट्टी की मूर्ति को ही पवित्र माना जाता है।

 

आकार लेने के बाद इन मूर्तियों को रंगों आदि से सज्जित किया जाता है। स्थापना के लिये मुकुटधारी गणेश जी की बांयी ओर सूढ़ वाली बैठी मूर्ति जिसमें मूषक भी हो यानि वक्रतुण्ड मुद्रा वाली मूर्ति को ही पूजने का विधान है। जल्दी विसर्जन के लिये खड़ी मूर्ति को लिया जाता है। दायी ओर सूड वाली अष्ट विनायक की मूर्ति इस कार्य के लिये नहीं ली जाती है क्यों उसके पूजन की विधि कठिन है और इसकी पूजा पुजारी के द्वारा ही सम्पन्न कराई जाती है। 

Look of Ganesha in Java, Indonesia and Thailand 

गणपति भारत के अलावा विश्व के अन्य स्थानों पे भी पूजित रहे हैं | विशेष करके दक्षिण पूर्व के देश जैसे थाईलैंड और इंडोनेशिया में | पुडुचेर्री में एक ऐसा मंदिर भी हैं जहाँ विश्व के अन्य देशों के गणपति के प्रचलित रूप की प्रतिमाएं स्थापित हैं | गणपति वैश्वीकरण के पहले हैं वैश्विक हो चुके हैं

 

और पढ़े 

1 Ganesha Temples Indonesia 

Ganesha Temple Pondichery 

The deeper symbolc meaning of Ganesha and message conveyed 

Maharashtra's Ashtavinayak Temples 

Receive Site Updates