श्रवण क्या है?

आध्यात्मिक अभ्यास में तीन चरण होते हैं: श्रवण, मनन और निदिध्यासन। चूंकि उपनिषद व्यक्ति को श्रवण का अभ्यास करने के लिए प्रेरित करते हैं, इसलिए इसका अभिप्राय जानना आवश्यक है| यह एक संस्कृत का एक शब्द है। संस्कृत में, अन्य शास्त्रीय भाषाओं, जैसे फ़ारसी, ग्रीक, लैटिन, की तरह हैं जहाँ धातु से शब्द बनते हैं|

श्रवण शब्द मूल 'श्रु' धातु है, जिसका अर्थ है सुनना, उपस्थित, सीखना, भाग लेना, पालन करना, गुणगान करना, श्रुत, ज्ञात होना, घोषणा, बतलाना, सूचित, संवाद, संबंध, और कहना। श्रवण का अर्थ है सुनना, जिसे सुना गया, सीखना, अध्ययन करना, वास्तविक अर्थ, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा को समझना। श्रावण का अर्थ केवल वेदांत वाक्यों को सुनना नहीं है, बल्कि  छः लिंगों (चिह्नों) उपकारा - उपसंहार (आरंभ-निष्कर्ष), अभ्यास, अपूर्वता (मौलिकता), फलम (परिणाम), अर्थवाद (प्रसंसा) और उपपत्ति (अर्थ का तार्किक निर्धारण) द्वारा उनके सच्चे अर्थ को जानना है|

सबसे पहले, किसी व्यक्ति को एक विशेष खंड की शुरुआत और निष्कर्ष के बीच सहसंबंध को देखना होगा की वे एक ही विषय से संबंधित है। दूसरा, व्यक्ति को एक विचार को बारम्बार दोहराना होगा जब तक वह एक मजबूत असर न छोडदे और विषय के बारे में दृढ़ विश्वास पैदा न कर दे।

तीसरा, वेदान्तिक वाक्यों चाहे जितने भी सामान्य प्रतीत हो उनका अर्थ कभी सामान्य नहीं होता| उनका एक मौलिक अर्थ होता है जिससे पता लगाना होता है| चौथा, इस तरह के विश्लेषण से एक परिणाम प्राप्त होना चाहिए जो प्राप्य है और एक काल्पनिक विचार नहीं होना चाहिए। पांचवा, व्यक्ति को विषय और प्रसंशा के बीच अंतर करने में सक्षम होना चाहिए और उसका ध्यान विषय के गुण पर होना चाहिए न की विषय के गुणगान पर। छठा, किसी को अपने निहितार्थ को खोजने के लिए तार्किक रूप से अनुसरण करने में सक्षम होना चाहिए और विषय के बारे में निश्चित निष्कर्ष पर आना चाहिए|

इसलिए, श्रवण का अर्थ केवल ज्ञान की बातें सुनना नहीं है, बल्कि उनका तार्किक रूप से विश्लेषण करने के बाद आत्मसात करना है। इसका मतलब है कि इस स्तर पर भी संदेह के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है। श्रवण को व्यक्ति की अपनी प्रकृति को समझने की पूरी प्रक्रिया में एक तार्किक और सहज स्तर के रूप में माना जाता है, और जिसके बाद मनन और ध्यान की और बढ़ना होता है|

श्रावण के द्वारा, अध्यात्म के मार्गी को महावाक्यों, आत्मा और ब्राह्मण की पहचान की घोषणा करते हैं, के वास्तविक अर्थ और महत्व को खोजना पड़ता है, जैसे तत त्वम्असि (वो तुम हो)| इस वाक्य में, श्रवण की प्रक्रिया में 'तुम’ और 'वो' शब्दों का सावधानीपूर्ण विश्लेषण और कैसे ये दोनों शब्द एक है| इसलिए, श्रवण एक निष्क्रिय सुनने को नहीं बल्कि एक सक्रिय समझने को कहते है|

एक भक्त के परिपेक्ष में श्रवण प्रभु के नाम एवं उनकी लीलाओं का वर्णन सुनना है| यहाँ भी श्रवण को प्रभु में पूर्णरूपेण आस्था की आवश्यकता है| और प्रभु के सामने आत्मसमर्पण करना चाहिए ताकि जब भक्त भगवान के नामों को सुने, तो व्यक्ति आश्वस्त हो जाए कि यह  नाम उसे जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्ति दिलाएगा|

लेखक : संपादक प्रबुद्ध भारतयह आलेख लेखक के अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद है |

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यह लेख सर्वप्रथम प्रबुद्ध भारत के August 2017 का अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रबुद्ध भारत रामकृष्ण मिशन की एक मासिक पत्रिका है जिसे 1896 में स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित किया गया था। मैं अनेक वर्षों से प्रबुद्ध भारत पढ़ता आ रहा हूं और मैंने इसे प्रबोधकारी पाया है। इसका शुल्क एक वर्ष के लिए रु॰180/-, तीन वर्ष के लिए रु॰ 475/- और बीस वर्ष के लितीन वर्ष के लिए रु॰ 475/- और बीस वर्ष के लिए रु॰ 2100/- है। अधिक जानकारी के लिए

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